COVID ... ये समय सबसे तकलीफदेय था। याद करता हूं तो सिहर जाता हूं। हर वर्ष हर नवंबर का हर दिन बड़ी तकलीफ में कटता है। क्यों...? तुम बड़े होकर समझ जाओगे। तुम पंद्रह दिन के और हमें कोविड था... नाना नानी मामा मामी सब तकलीफ में। लगातार कोशिशें.. आंखों का पानी छिपाए... अपनी घबराहट छिपाए, कोशिशें। मेरे अंदर क्या चल रहा था उस समय शायद ही कोई समझा हो। हम उबर आए थे, शायद ईश्वर को हम पर दया आ गई थी। शायद तुम्हारे साथ ईश्वर आया था। एक छोटा बच्चा ईश्वर का ही रूप होता है... होता है न!
मेरे से ज्यादा तो उन सबने तकलीफ झेली जिन्होंने 1200 Kms की पैदल यात्राएं की। गरीबी हमसे क्या क्या नहीं करवाती। विस्थापन, फुटपाथ, उड़ी नींद और जाने क्या क्या नहीं झेला होगा सबने।कई बार सोचा हूं, कई बार अकेले में रोया हूं। विपिन चाचू के पास हमसे भयावह कहानियां है। पता नहीं वो कैसे सोया होगा।
मैं तुम्हें सब अपनी मनःस्थिति या वो समय बताने नहीं बता रहा हूं। बस इसलिए कि तुम इक दिन समझोगे कि हमें और अधिक मानवीय, मनुष्यतर बनना है। आपदाएं मानव सभ्यता को उसकी सच्चाई, उसकी औकात बताने आती हैं। ये बताने कि हम क्षणभंगुर हैं, ये बताने की मनुष्यता को प्रकृति कभी भी खत्म करने में सक्षम है। ये बताने कि हमें प्रकृति और मानवता दोनों को अधिक प्यार करने और सहेजने की आवश्यकता है।
मैं चाहता हूं की जब तुम बड़े हो जाओ तो इस आपदा से समझो कि अस्पताल में कॉविड में भी हम तक खाना पहुंचने मामा मामी, नाना नानी, 150Kms चलकर आते दादा दादी अपना सबकुछ दांव पर रखने के लिए तैयार थे। ये समझो कि परिवार के मायने क्या हैं।
तुम प्रकृति के अधिक पास हो जाओ, अधिक प्रेम करने लगो, थोड़ा ज्यादा रिश्ते समझने लगो, अंदर से अधिक ताकतवर बनो और अधिक मानवीय हो जाओ... इसलिए लिख रहा हूं।
तुम्हारे पापा.
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