हम सोशल मीडिया पे लिख लिख कर गुस्से का इज़हार करते हैं, वक़्त हुआ तो किसी चौराहे पे मार्च या इंडिया गेट पे कैंडल जलाने में हिस्सा बनते हैं... और लेकिन वोट अपने जाति वाले को ही देते हैं.
हम इतने सभ्य हैं कि जब तक हादसे घर पे दस्तक नहीं देते खुद की सोच तक हम नहीं बदलते. हमने अपनी जातियों/धर्मों को वोट दिए हैं. हमने अपने फ्रैंकेंस्टीन खुद पैदा किये हैं.
कितना सुख है शाम को कुर्सी पर बैठ ये सोचने में कि आज हमारे साथ कोई हादसा नहीं हुआ है... और कितना सुकूं है फोन पे ये पता चलने में कि चाहने वाले भी ठीक हैं.
सच तो ये है, सुख के साथ मैं ये लिख रहा हूँ, सुकूं के साथ आप इसे पढ़ने वाले हैं. कल नए फ्रैंकेंस्टीन फिर पैदा करने वाले हैं. कल फिर सोशल मीडिया पे कवितायेँ, चौराहे पे मार्च और कैंडल जलाने वाले हैं और उसके फोटो चस्पाने वाले हैं.
वैसे पिछली बार की कविता उतनी अच्छी नहीं थी, शायद इमोशंस कम रह गए थे. इस बार तो क्या लिखा है आपने!
इस बार की फोटो ठीक ही है. अगली बार कैंडल सामने और बैनर बगल में रख के फोटो खिचाईयेगा... बेहतरीन आएगी. पूरा एक्टिविस्ट लगेंगे.
इस बार की फोटो ठीक ही है. अगली बार कैंडल सामने और बैनर बगल में रख के फोटो खिचाईयेगा... बेहतरीन आएगी. पूरा एक्टिविस्ट लगेंगे.
दुआ करता हूँ ये आपके लिए 'अगली बार' जल्दी ही आएगा.
#TheObtuseAngle,