अक्सर भारतीय संस्कृति का गुणगान करते हुए उसकी पाश्चात्य संस्कृति से तुलना की जाती है और पाश्चात्य संस्कृति को अपसंस्कृति का पर्याय बताया जाता है. अमरीकी संस्कृति को भी पाश्चात्य संस्कृति का ही अंग माना जाता है. लेकिन पिछले दिनों एक घटना ऐसी हुई है जो इस सामान्य धारणा पर पुनर्विचार के लिए विवश करती हैं.
संस्कृति के साथ कुछ शब्द जुड़े हुए हैं. उनमें एक है शिष्टता और दूसरा शालीनता. खुद से अलग या भिन्न का सम्मान और उसे ठेस न पहुंचाना इसमें शामिल है. दूसरों के प्रति सद्भाव को इनके साथ जोड़ लिया जाना चाहिए. इसके साथ ही दूसरों की ज़रूरत का खयाल या उसकी चिंता सुसंस्कृत व्यक्ति का गुण माना जाता है.
वह व्यक्ति जो अपने ग्लास में पानी नहीं छोड़ता या अपनी प्लेट में खाना, उनके मुकाबले अधिक सुसंस्कृत है जो इन दोनों की लापरवाह फिजूलखर्ची करते हैं. जाहिर है, इसमें सावधानी की और निरंतर सचेत रहने की आवश्यकता होती है. यानी आप खुद पर लगातार नज़र रखते हैं.
दूसरे से हुई गलती को नज़रअंदाज करना और उसे दुरुस्त कर देना लेकिन इस तरह कि उसे बुरा न लगे, यह स्वभाव कठिन है और अभ्यास करने से ही आ सकता है, लेकिन है वांछनीय अगर हम परिष्कृति के आकांक्षी हैं.
दूसरे को हीन न दिखाना और किसी भी तरह उसका अपमान न करना भी सुसंस्कृति का ही अंग है. इससे एक दर्जा आगे वे लोग हैं जो दूसरों का अपमान होते देख खामोश नहीं रहते. वे निश्चय ही बाकी के मुकाबले कहीं अधिक सुसंस्कृत हैं जो अन्याय देखकर मुंह नहीं मोड़ते और उससे संघर्ष को अपना दायित्व मानते हैं.
संस्कृत व्यक्ति वह निश्चय ही है जो, काव्य शास्त्र और कला-विनोद में प्रवीण है लेकिन उतना होना पर्याप्त नहीं है. चाहें तो कह सकते हैं कि काव्य और कला उन गुणों की शिक्षा देती हैं जिनकी चर्चा पहले की गई है. लेकिन हम यह भी जानते हैं यह रिश्ता इतना सीधा नहीं है.
हॉलीवुड की मशहूर अभिनेत्री मेरील स्ट्रीप ने पिछले इतवार को गोल्डन ग्लोब्स पुरस्कार समारोह में फिल्मों में अपने काम, यानी अभिनय के लिए पुरस्कार ग्रहण करते समय लगभग पांच मिनट का जो वक्तव्य दिया, वह इसी वजह से सामाजिक और राजनीतिक व्यवहार में शालीनता की बहाली की एक शानदार अपील बन गया है. वह भी ऐसी जिसे सुनकर सिर्फ़ अमरीका के नहीं, पूरी दुनिया के लोग उसमें अपने लिए भी कुछ सुन पा रहे हैं.
एक गलत ढंग से मान लिया गया है कि अभिनय या फिल्म कला की अपील विचार करने लायक नहीं होती है और इसलिए फ़िल्मी दुनिया से जुड़े लोगों को अपने काम से काम रखना चाहिए
संस्कृति का एक गुण या लक्षण यह भी है - सार्वकालिकता और सार्वभौमिकता. मेरील स्ट्रीप अंग्रेज़ी में बोल रही थीं और अमरीकी संदर्भ में बात कर रही थीं लेकिन वे जिस मानवीय आकांक्षा को अभिव्यक्त कर रही थीं, वह भाषा और राष्ट्रीयता की सीमा को लांघ जाती है और सार्वदेशिक बन जाती है.
गोल्डन ग्लोब्स पुरस्कार की आकांक्षा प्रत्येक सिनेकर्मी को होती है. यह पुरस्कार हॉलीवुड फौरेन प्रेस की और से दिया जाता है. माना जाता है सिनेमा से जुड़े लोग अपने प्रशंसकों को नाराज़ नहीं करना चाहते. एक गलत ढंग से मान लिया गया है कि अभिनय या फिल्म कला की अपील विचारातीत (विचार के अयोग्य) होती है और इसलिए फ़िल्मी दुनिया से जुड़े लोगों को अपने काम से काम रखना चाहिए. इसलिए ऐसे मौकों पर उन्हें अपने प्रशंसकों, सहयोगियों का शुक्रिया अदा करना चाहिए, और बस!
सामाजिक मुद्दों पर उनका हस्तक्षेप तो फिर भी स्वीकार्य है, जैसे साक्षरता के लिए या एड्स अथवा कैंसर के विरुद्ध अभियान में हिस्सेदारी, लेकिन जैसे ही वे उस क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जिसे राजनीतिक कहा जाता है, अक्सर उन्हें मुंह बंद रखने की सलाह दी जाती है. मेरील स्ट्रीप ने पिछले इतवार की रात जो कहा उसे संकीर्ण रूप से ही राजनीतिक कहा जा सकता है, वह एक व्यापक अर्थ में सामाजिक व्यवहार में परिष्कार की दुहाई थी.
मेरील ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा, ‘इस हॉल में अमरीकी समाज के सबसे ज्यादा बदमान तबके के लोग बैठे हैं: हॉलीवुड, विदेशी और प्रेस.’ आगे वे बोलीं,
‘लेकिन हम हैं कौन? और हॉलीवुड ही क्या है, आखिरकार? हॉलीवुड अलग-अलग जगहों का जमावड़ा है...हॉलीवुड बाहरी लोगों और विदेशियों से पटा हुआ है और अगर आप उन्हें निकाल दें तो फुटबाल और मार्शल आर्ट्स के अलावा यहां और कुछ देखने को बचेगा नहीं, जो वास्तविक रूप में कला नहीं है.
मेरील स्ट्रीप डोनाल्ड ट्रंप के उस भाषण के हवाले से अपनी तकलीफ जाहिर कर रही थीं जिसमें डेली न्यूज़ के रिपोर्टर सर्ज कोवाल्स्की के लाचार हाथों की नक़ल उतारते हुए उनकी खिल्ली उड़ाई गई थी
कलाकार का एकमात्र काम उन लोगों के जीवन में प्रवेश करना है जो हमसे अलग हैं और आपको वह महसूस कराना है जो वे महसूस करते हैं और ऐसी शानदार अदाकारी के काफी उदाहरण थे इस साल,...लेकिन एक अभिनय ऐसा था जिसने मुझे स्तब्ध कर दिया, वह मेरे दिल में धंस गया, लकिन इसलिए नहीं कि वह अच्छा था. उसमें कुछ भी अच्छा नहीं था. लेकिन वह असरदार था और उसने अपना काम किया: उसने अपने दर्शकों को हंसाया...यह वह क्षण था जब इस देश के सबसे सम्मानित आसन पर बैठने जा रहे व्यक्ति ने एक विकलांग रिपोर्टर की नक़ल उतारी, जिससे वह पद और प्रतिष्ठा और मुकाबला करने की क्षमता में कहीं आगे है.
इसने मेरा दिल तोड़ दिया और मैं अभी भी इसे अपने ख्याल से निकाल नहीं पा रही क्योंकि यह सिनेमा में नहीं असली ज़िंदगी में किया गया था. दूसरे को अपमानित करने की इच्छा जब सार्वजनिक जीवन के किसी व्यक्ति के माध्यम से व्यक्त होती है तो वह हर किसी की ज़िंदगी में चली जाती है क्योंकि वह सबको ऐसा करने की इजाजत या छूट देती है. अपमान का जवाब अपमान से मिलता है, हिंसा, हिंसा को जन्म देती है. जब ताकतवर लोग अपनी जगह का इस्तेमाल दूसरों पर धौंस जमाने के लिए करते हैं तो हम सबकी हार होती है.’
मेरील स्ट्रीप ने अपने संक्षिप्त वक्तव्य में कहीं अमरीका के भावी राष्ट्रपति का नाम नहीं लिया लेकिन वे डोनाल्ड ट्रंप के उस भाषण के हवाले से अपनी तकलीफ जाहिर कर रही थीं जिसमें डेली न्यूज़ के रिपोर्टर सर्ज कोवाल्स्की के लाचार हाथों की नक़ल उतारते हुए उनकी खिल्ली उड़ाई गई थी.
सार्वजनिक आचरण में फूहड़पन के हम आदी हैं और अकसर वह एक विकृत आनंद भी देता है. किसी की शारीरिक अक्षमता या उसके रूप-रंग, मोटापे, उच्चारण के सहारे किसी को नीचा दिखाना, या उसका मज़ाक बनाना हिंदी फिल्मों में आम है. लेकिन वह एक हिंसक इच्छा के साथ भी जुड़ा है - जिसकी खिल्ली उड़ाई जा रही है, उसे इससे क्षति पहुंचेगी, यह ख्याल ही खुशी देता है. मेरील स्ट्रीप ने इस हिंसक प्रवृत्ति का विरोध किया.
यह हिंसक चतुराई पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश में बढ़ती जा रही है और उसे सार्वजनिक स्वीकृति भी मिलती जाती है.
सार्वजनिक आचार में परिष्कार का यह आग्रह अमरीका से हम तक पहुंचे तो उसे सुनने में हर्ज नहीं. जैसे मेरील के मन में ट्रंप की हिंसक अदाकारी धंस गई, हममें से कुछ लोगों के मन में आज भारत के सबसे ताकतवर शख्स के हिंसक अभिनय के कई उदाहरणों के पंजे धंसे हुए हो सकते हैं. कुछ बरस पहले शशि थरूर और उनकी प्रेमिका सुनंदा के बीच रिश्ते का जिक्र करते हुए कहा गया कि शशि थरूर की प्रेमिका पचपन करोड़ की है तो हममें से कम लोगों ने ही उसकी आलोचना की होगी, बल्कि उस वक्तव्य ने हमारे भीतर की हिंसक प्रवृत्ति को सहलाकर उत्तेजित किया.
सोनिया गांधी या चुनाव आयुक्त जेम्स लिंग्दोह के पूरे नामों का धीरे-धीरे पूरा उच्चारण करके उनके हिंदूतर होने की ओर एक हिंसक इशारे पर भी हम आहत नहीं हुए. जैसे अपने विरोधी के साथ यह व्यवहार तो उसे चित्त करने का एक चतुर दांव हो!
यह हिंसक चतुराई पिछले कुछ वर्षों में हमारे देश में बढ़ती जा रही है और उसे सार्वजनिक स्वीकृति भी मिलती जाती है. हमारे अभिनेताओं में जो सबसे ताकतवर हैं और हमारे खिलाड़ियों में भी, जो इस देश के सबसे संपन्न लोगों में भी हैं, इस हिंसा को नाम देने की हिम्मत नहीं है, उसे चुनौती देने की बात तो छोड़ दीजिए.
समाज धीरे-धीरे इस तरह की हिंसा का आदी होता जाता है. यह सब कुछ देखकर दिल सचमच टूटता है. लेकिन जैसा मेरील स्ट्रीप ने अपने वक्तव्य के अंत में कहा, अपनी एक गुजर चुकी मित्र प्रिंसेस लिया को याद करते हुए, जिन्होंने कहा था, ‘अपने टूटे हुए दिल को कला में बदल दो!’
कला आखिरकार सचाई का बयान या खोज है, और जैसा चंगेज़ आइत्मातोव के नाटक ‘फूज़ियामा’ की एक पात्र कहती है, सचाई ही सबसे बड़ा शिष्टाचार है. यह तो लेकिन हमें पता है कि इस शिष्टाचार का अभ्यास करना इतना सरल नहीं है.
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