...और मैंने उनके कन्धों पर रख
बंदूकें चलाईं.
वो कंध इतने दृण थे की
दशकों से वहां पर लाइन में
जीवंत-बुतों की तरह खड़े थे,
कपट-राजनीति की तरफ मुंह किये.
इंतज़ार में कि
कोई आएगा, इन कन्धों पे रख
बारूद चलाएगा,
छिन्न-भिन्न करेगा अराजकता, अलोकतंत्र.
जनाक्रोश के लिए तैयार खड़े ये कंधे
महान कवियों के कंधे हैं.
तुम चाहो तो इन्हें
ढाल बना सकते हो,
कंधे से बन्दूक चला सकते हो
या इन जीवंत-बुतों की उँगलियाँ थाम
राह पा सकते हो.
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