रात वह धुंआ है जो तुम्हारे ज़िस्म से उतर पहाड़ों से होकर आकाश में नहीं खोने वाली, ठीक उस लड़की की तरह जिसके सपने में तुमने घर बसाया था और तुम्हारे ख्वाबों में उसने नया शहर. वो शहर मरा नहीं है, बस ऊंघता रहता है, जैसे मुग़लों के वक़्त से उसमें कोई रह ही न रहा हो. कैलेंडर तारीखें बदलता रहता है, याद हर दिन बूढी होती है, सोचता हूँ मरेगी एक रात. लेकिन इन तैरती यादों को किताबों से नहीं मारा जा सकता. सब बेमानी होता है इन रातों में आँखे पथरा जाती हैं और लड़के ने पहली दफे जाना की लड़की का ना होना किताबों से नही भरा जा सकता. फ्रेंज़ काफ्का से भी नहीं!
सोचता हूँ पूछ लूँ... तुम्हारे सपनों में बसे मेरे घर का क्या हाल है?