तुम्हारे बगैर
मैं किसी जकड़न से अलग सा महसूस करता हूँ,
बेड़ियों से छूटा सा.
सोच पाता हूँ खुद को
और किसी रौशनी में चलने लगता हूँ.
तुम्हारे बगैर कई ख्याल, कई लोग
सीधे मिलने आते हैं.
पाश, लेनिन, काफ़्का से लेकर
नेहरू, कबीर, गुरुदत्त तक
पता नहीं कौन-कौन.
और कई दफे पिकासो, हलदनकर मिलकर
मेरे सर पे रंग उड़ेल जाते हैं.
जैसे 'ब्लू फेज़' की कोई पेंटिंग गढ़ गये हों.
तुम्हारे बगैर मैं असीमित होता हूँ.
तुम्हारे बगैर ज्यादा खुश,
आज़ाद और प्रफुल्लित.
तुम्हारे बगैर मैं बस 'विवेक' होता हूँ,
'सिर्फ तुम्हारा विवेक' नहीं.
खुद के सपने देखता हूँ,
खुद की समझ बूझता हूँ.
फिर मैं तुम्हारा साथ क्यों चाहूंगा?
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