उसकी कत्थई आँखों में देखता हूँ जी भर,
अपलक निहार-निहार
निश्छल,
निर्मल,
निष्कपट,
मेरे सौम्य-शीतल चाँद.
जैसी तमाम पदवियां
लुटाता हूँ बार-बार.
एक दिन
उसकी कत्थई आँखें
मेरे वक़्त का तकाज़ा कर
फेर लेती हैं नज़रें!
मैं जोर से चीखता हूँ
'मुक्तिबोध, चाँद का मुंह सच में टेड़ा है.'
कवि बेवकूफ़ होते है,
बेहद बेवकूफ़!